पटना : बिहार की राजनीति में पिछले दिनों तीन बड़ी घटनाएं हुई। पहली पटना उच्च न्यायालय ने नगर निकाय चुनाव में अतिपिछड़ों के 20 फीसदी आरक्षण पर रोक लगा दी। दूसरा राज्य निर्वाचन आयोग ने उच्च न्यायालय के फैसले के बाद नगर निकाय चुनाव की जारी प्रक्रिया को स्थगित कर दी। और तीसरा, राज्य सरकार ने कहा है कि पटना उच्च न्यायालय के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाएगी। राज्य सरकार 10 अक्तूबर को सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करेगी। यह भी विडंबना है कि राज्य सरकार आयोग गठित कर चुनाव की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के बजाये चुनाव को लटकाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय जा रही है। पहली बात यह है कि पटना उच्च न्यायालय ने अतिपिछड़ों को नगर निकाय चुनाव में आरक्षण को नीतिगत रूप से गलत नहीं बताया है। कोर्ट का कहना है कि स्थानीय निकायों में आरक्षण के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने ट्रिपल टेस्ट का फार्मूला तय किया है, लेकिन राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फार्मूले की अनदेखी कर आरक्षण देने का निर्णय लिया। इसलिए यह आरक्षण का कोटा अवैध है। इसके साथ ही कोर्ट ने कहा है कि अतिपिछड़ा के लिए आरक्षित सीटों को छोड़कर अन्य सीटों पर चुनाव की प्रक्रिया जारी रखा जा सकती है। साथ में उच्च न्यायालय ने यह कहा कि राज्य सरकार को लगता है कि नगर निकाय की सभी सीटों पर चुनाव करना अनिवार्य है तो अतिपिछड़ा सीटों को अनारक्षित कर नये सिरे से इन सीटों के लिए अधिसूचना जारी कर चुनाव कराया जा सकता है। लेकिन हाई कोर्ट के निर्देंश के आलोक में वर्तमान स्वरूप में चुनाव प्रक्रिया जारी रखना संभव नहीं है। इसलिए राज्य निर्वाचन आयोग ने चुनाव को स्थगित कर दिया। अब वर्तमान चुनाव अधिसूचना के आधार चुनाव संभव नहीं है। इसलिए आयोग को देर-सबेर वर्तमान चुनाव प्रक्रिया को रद ही करना पड़ेगा। रही बात सर्वोच्च न्यायालय में हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देने की, तो यह सिर्फ अतिपिछड़ी जातियों को छलावे में रखने की कोशिश है। क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के आधार ही आरक्षण को रद किया गया है। सर्वोच्च न्यायाल भी ट्रिपल टेस्ट की बात दुहरा कर हार्इकोर्ट के फैसले को बरकरार रखेगा। दरअसल पटना उच्च न्यायालय का फैसला मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की प्रशासनिक विफलता का परिणाम है। इसमें भाजपा, जदयू या राजद जैसा कोई फैक्टर नहीं है। सर्वोच्च् न्यायालय ने लगभग एक साल पहले ही कहा था कि स्थानीय निकायों में ओबीसी (बिहार के संदर्भ में ईबीसी) का आरक्षण कोटा तय करने के लिए आयोग गठित किया जाये और उसी आयोग की सिफारिश के आधार पर ओबीसी को आरक्षण दिया जाये, लेकिन यह कोटा कुल सीटों के 50 फीसदी से अधिक नहीं होना चाहिए।इसके बावजूद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने किसी आयोग का गठन नहीं किया। वर्तमान आरक्षण कोटा के आधार पर चुनाव कराने का निर्देश राज्य निर्वाचन आयोग को दिया। नीतीश कुमार की सरकार पहले भाजपा के ईंधन पर चल रही थी और अब राजद के ईंधन पर चल रही है। व्यावहारिक भाषा में कहें तो नीतीश सरकार पहले राजपूत-भूमिहार के सपोर्ट से चल रही थी और यादवों के सपोर्ट से चल रही है। ये सभी जातियां नगर निकाय आरक्षण के दायरे से बाहर हैं। किसी भी पार्टी में कोई भी बड़ा नेता ईबीसी जाति से नहीं आता है। इसलिए आरक्षण के रोकने से पिछड़े या सवर्ण जातीयों के राजनीतिक सेहत पर कोई असर नहीं पड़ रहा है। बल्कि आरक्षण खत्म होने से यादव, भूमिहार राजपूत, ब्राह्मण, कोईरी, कुर्मी जैसी मजबूत जातीयों के लिए स्थानीय निकायों में चुनाव लड़ने का अवसर बढ़ गया है। अब यही जातियां अतिपिछड़ों के आरक्षण पर घडि़याली आंसू बहा रही हैं। कोई इस पार्टी में है, कोई उस पार्टी में है। अतिपिछड़ी जाति के किसी नेता को कोई भी पार्टी इस मुद्दे पर बोलने का मौका नहीं देगी। आयोग बनवाने की पहल न भाजपा ने की, न राजद ने। इसके अकेले जिम्मेवारी सरकार के मुखिया यानी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं और यह उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक विफलता है। और अतिपिछड़ों के साथ सरकार का सबसे बड़ा धोखा भी।