पटना : फ़क़ीरी की ज़िंदगी जीने वाले हिन्दी के महान साहित्य सेवी आचार्य शिव पूजन सहाय का साहित्यिक व्यक्तित्व हिमालय की तरह ऊँचा था। उन्होंने काशी विश्वविद्यालय के संस्थापक महामना मदन मोहन मालवीय की भाँति साहित्य और शिक्षा के लिए अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। उनके हाथ में संपादन की एक ऐसी क्षेणी-हथौड़ी थी, जिससे उन्होंने साहित्य के अनेक अनगढ़ पत्थरों को सुंदर मूर्तियों में गढ़ दिया। वे हिन्दी कथा-साहित्य में ‘आंचलिक-बोध’ के प्रथम साहित्यकार थे। उन्होंने दधीचि की तरह हिन्दी के लिए अपनी सारी हड्डियाँ गला दीं।

यह बातें शुक्रवार को बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में आयोजित जयंती-समारोह और लघुकथा-संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए, सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। उन्होंने कहा कि शिवजी राष्ट्राभाषा परिषद के मंत्री और फिर बाद में निदेशक के रूप में, 1950 से 1959तक, कुल 9 वर्षों तक, साहित्य सम्मेलन के परिसर में ही रहे। यह साहित्य सम्मेलन का स्वर्णिम-काल था। आचार्य जी से दिखाने के लिए, देश भर के साहित्यकार अपनी पांडुलिपियाँ लेकर यहाँ आते थे। 1940से 1963 के बीच लिखी गई उनकी डायरी हिन्दी-साहित्य की एक महान धरोहर है। वे हिन्दी के जीवित ज्ञान-कोश थे।

डा सुलभ ने कहा कि भारत सरकार के ‘पद्म-भूषण’ सम्मान से विभूषित शिवजी के संपादन कौशल की कोई तुलना नही थी। कथा-सम्राट मुंशी प्रेमचंद्र हों या कि ‘कामायनी’ जैसे महाकाव्य के रचयिता महाकवि जयशंकर प्रसाद, सभी अपनी पुस्तकें, प्रकाशन के पूर्व आचार्य जी से दिखा लेना आवश्यक समझते थे। वे जितने बड़े विद्वान थे, उतने ही सरल-सहज और विनम्र भी। सम्मेलन के सभी लेखन-कार्य वे स्वयं करते थे। वे भेजे जाने वाले पत्रों पर अपने हाथों से टिकट साटने से लेकर, डाक-पेटी में डालने तक का कार्य करने में संकोच नहीं करते थे। उन्होंने अनेक साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के संपादन के साथ-साथ कथा-साहित्य को अनेकों ग्रंथ दिए। ‘बिहार का साहित्यिक इतिहास’ और भारत के अनेक महापुरुषों की जीवनियाँ भी लिखी। देश रत्न डा राजेंद्र प्रसाद की आत्म-कथा का संपादन भी किया। राष्ट्रभाषा परिषद के निदेशक के रूप में 50 से अधिक शोध-ग्रंथों का संपादन और प्रकाशन किया। हिन्दी साहित्य में उनका अवदान अतुल्य है।

आरंभ में अतिथियों का स्वागत करते हुए, वरिष्ठ कवि और भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी बच्चा ठाकुर ने कहा कि, शिवजी कवि नहीं थे। किंतु उन्होंने गद्य-साहित्य को पद्य का लालित्य प्रदानकिया। कथा-साहित्य में आंचलिक-ध्वनि प्रथमबार उनकी ही पुस्तक ‘देहाती दुनिया’ में सुनायी पड़ती है।

इस अवसर पर आयोजित लघु-कथा-गोष्ठी में वरिष्ठ लेखिका डा पूनम आनन्द ने ‘चिंता’ शीर्षक से, डा पुष्पा जमुआर ने ‘ज़हरीला कौन?’, ओम् प्रकाश पाण्डेय ने ‘शेर का शिकारी’, मीरा श्रीवास्तव ने ‘करुणामयी’, डा रेणु मिश्र ने ‘अंगूठी की क़ीमत’, नीता सहाय ने ‘कुछ’, जय प्रकाश पुजारी ने ‘जाति’ तथा चितरंजन भारती ने ‘नाटकबाज़ी’ शीर्षक से अपनी अपनी लघु-कथा का पाठ किया। मंच का संचालन ब्रह्मानन्द पाण्डेय ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन कृष्ण रंजन सिंह ने किया।

वरिष्ठ व्यंग्यकार बाँके बिहारी साव, डा अंजु कुमारी, श्रीप्रकाश ओझा, डा चंद्रशेखर आज़ाद, मनोज कुमार सिन्हा, श्याम मनोहर मिश्र, विनय चंद्र, अल्पना कुमारी, राजेश दयाल, मनोज कुमार सिन्हा, नन्दन कुमार मीत, कुमारी मेनका, डौली कुमारी, मयंक मानस, श्रीबाबू आदि प्रबुद्धजन उपस्थित थे।