पटना : संविधान बनने तक यदि महात्मा गाँधी जीवित रहते तो भारतीय संविधान का स्वरूप कुछ और ही रहता। संविधान-सभा की प्रथम बैठक में ‘हिन्दी’ भारत की राष्ट्रभाषा घोषित हुई होती। गाँधी जी हिन्दी को ‘देश की राष्ट्रभाषा’ मानकर अखंडित भारतवर्ष में इसके महत्त्व को समझाने और प्रचार में लगे रहे थे। उन्होंने अहिन्दी भाषी प्रदेशों में हिन्दी-प्रचार की अनेक संस्थाएँ स्थापित की। महाराष्ट्र के वर्धा में, जहां उनका आश्रम भी था, उन्होंने ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समिति’ की स्थापना की थी, जो आज भी बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन की भाँति चिरंजीवी और गतिमान संस्था है।
यह बातें बुधवार को साहित्य सम्मेलन में आयोजित महात्मा गाँधी एवं लाल बहादुर शास्त्री जयंती पर आयोजित राष्ट्रभाषा-संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए, सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। उन्होंने कहा कि गाँधी जी कहा करते थे कि भले ही अंग्रेज कुछ दिन और ठहर जाएं किंतु अंग्रेज़ी को भारत से शीघ्र विदा की जानी चाहिए। वे यह इसलिए कहा करते थे कि भारत की आत्मा को अपना पुराना स्वरूप ग्रहण करने में ‘अंग्रेज़ी’ ही सबसे बड़ी बाधा है। यही भारत को एक नहीं होने दे रही। यह हिन्दी ही है, जो भारत को एक करेगी। भारत के एकत्व का सूत्र केवल और केवल हिन्दी में है।
डा सुलभ ने कहा कि यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि स्वतंत्रता के अमृत-पर्व बीत जाने के बाद भी हिन्दी देश की राष्ट्रभाषा नहीं बन पायी है। राष्ट्रभाषा तो क्या यह भारत की राजभाषा, अर्थात भारत सरकार के कामकाज की भाषा तक नहीं बन पायी, जिसका निर्णय 14 सितम्बर, 1949 को भारत की संविधान सभा ने लिया था। वैधानिक रूप से अभी भी अंग्रेज़ी ही भारत सरकार की राजभाषा है, जो इस देश के किसी एक भूभाग तो क्या किसी एक भारतीय की भी मातृ-भाषा नहीं है। घोर लज्जा का विषय तो यह है कि, हर एक भारतीय के लिए ‘वैश्विक-लज्जा’ की इस बात से भी भारत के रहनुमाओं को लज्जा नहीं आती। उन्होंने शास्त्री जी को स्मरण करते हुए, उन्हें गांधी जी का सच्चा अनुयायी तथा भारत का सच्चा और सबसे अच्छा ‘लाल’ बताया। वे भारत के द्वितीय किंतु ‘अद्वितीय’ प्रधानमंत्री थे।
बिहार सरकार में विशेष सचिव रहे सुप्रसिद्ध विद्वान डा उपेंद्रनाथ पाण्डेय ने कहा कि गांधी अपने उत्तम विचारों के कारण विश्व के महान व्यक्तियों में गिने जाते हैं। पूरे भारतीय वाँगमय को पढ़ा जाए और उस पर विचार हो तो गाँधीदर्शन की श्रेष्ठता हमें स्वीकार करनी पड़ती है। गाँधी के निधन पर नेहरू ने कहा था कि ‘प्रकाश’ चला गया। ‘लाइट इज गौन’! सच में उनका निधन भारत के लिए अंधकार के काल का आगमन सिद्ध हुआ। गाँधी जी हिन्दी के महान उन्नायकों में से एक थे। उन्होंने कहा था कि दक्षिण के जो लोग इसका विरोध करेंगे, वे वास्तव में देश का और स्वयं अपना भी अनिष्ट करेंगे। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण होगा।
आरंभ में अतिथियों का स्वागत करते हुए सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद ने महात्मा गांधी की आत्मकथा के अंशों को उद्धृत कर उनके जीवन-संघर्ष की विस्तारपूर्वक चर्चा की। सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा मधु वर्मा, प्रो रत्नेश्वर सिंह, डा ध्रुव कुमार, डा ओम् प्रकाश पाण्डेय, डा मेहता नगेंद्र सिंह, प्रो सुशील कुमार झा, डा मनोज गोवर्द्धनपुरी आदि ने भी अपने विचार व्यक्त किए।
वरिष्ठ शिक्षिका माला कुमारी, चंदा मिश्र, दिनेश्वर लाल दिव्यांशु, सूर्य प्रकाश उपाध्याय, अर्जुन प्रसाद सिंह, प्रो राम ईश्वर पण्डित, नरेंद्र कुमार, डा हुमायूँ अख़्तर, नन्दन कुमार मीत, दुःख दमन सिंह, राम प्रसाद ठाकुर, रीतेश कुमार, अजीत कुमार भारती, रोहित कुमार, राहूल कुमार, डौली कुमारी, सूरज कुमार आदि ने भी देश की दोनों महान विभूतियों के चित्रों पर पुष्पांजलि अर्पित की।
मंच का संचालन ब्रह्मानन्द पाण्डेय ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन कृष्ण रंजन सिंह ने किया।