पटना : ‘राजनीति’ लड़खड़ाने लगी है। क्योंकि अब इसे साहित्य का संबल नहीं मिल रहा। मिले भी कैसे? आज के राजनेता साहित्य से उतनी ही दूरी बनाते जा रहे हैं, जैसे ‘अंधेरा’, ‘प्रकाश” से दूर रहना चाहता है। कभी राष्ट्रकवि ‘दिनकर’ ने ही कहा था कि ‘जब-जब राजनीति लड़खड़ाती है, ‘साहित्य’ उसे थाम लेता है”। आज लड़खड़ाती राजनीति को थाम लेने वाला कोई ‘दिनकर’ नहीं है। है भी तो उसे पूछता कौन है? आज जबकि ‘दिनकर’ और ज़रूरी, और अधिक प्रासंगिक हैं।यह बातें, राष्ट्रकवि और सम्मेलन के पूर्व अध्यक्ष ब्रजनन्दन सहाय ‘ब्रजवल्लभ’ की जयंती पर आयोजित समारोह एवं कवि-सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए, सम्मेलन-अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। उन्होंने कहा कि भारत की ऊन्नति में बाधक शक्तियों के साथ संघर्ष अभी समाप्त नहीं हुआ है। ‘समर’ अभी शेष है।

दिनकर ने हमें चेतावनी देते हुए कहा था- “ढीली करो धनुष की डोरी/ तरकश का कस खोलो/ किसने कहा, युद्ध की वेला चली गई, शांति से बोलो? किसने कहा, और मत वेधो हृदय वह्नि के शर से/ भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से? कुंकुम लेपूँ किसे, सुनाऊँ किसको कोमल गान? तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिंदुस्तान/ समर शेष है, नही पाप का भागी केवल व्याध/ जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध।” सम्मेलन के पूर्व अध्यक्ष और हिन्दी के प्रथम मौलिक उपन्यास ‘सौंदर्योपासक’ के रचनाकार ब्रजनंदन सहाय ‘ब्रजवल्लभ’ को उनकी जयंती पर स्मरण करते हुए, डा सुलभ ने कहा कि आधुनिक हिन्दी में पहला उपन्यास लिखकर ब्रज वल्लभ जी ने न केवल इतिहास की रचना की, अपितु बिहार का भाल भी उज्ज्वल किया। हिन्दी कथा-साहित्य में बिहार का नाम इसीलिए आदर के साथ लिया जाता है। बिहार के ही सदल मिश्र जी ने हिन्दी की पहली कहानी लिखी थी।

सम्मेलन के वरीय उपाध्यक्ष जियालाल आर्य ने कहा कि दिनकर जी रवींद्र नाथ ठाकुर से प्रभावित थे। उनकी काव्य-चेतना में राष्ट्र और राष्ट्रीयता का सर्वोत्तम स्थान था। काव्य-जगत में उन्होंने अपनी रचनाओं से एक नूतन क्रांति उत्पन्न कर दी।भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी और वरिष्ठ कवि डा उपेंद्र नाथ पाण्डेय ने कहा कि ‘हिन्दी’ देश की राष्ट्राभाषा बने, दिनकर जी इसके सबसे बड़े वकील थे। वीर कुँवर सिंह विश्वविद्यालय पूर्व कुलपति प्रो सुभाष प्रसाद सिन्हा, सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद, डा मधु वर्मा, डा ध्रुव कुमार तथा बच्चा ठाकुर भी अपने विचार व्यक्त किए।

इस अवसर पर आयोजित कवि-गोष्ठी का आरंभ चंदा मिश्र की वाणी-वंदना से हुआ। वरिष्ठ कवि आरपी घायल ने जब यह शेर पढ़ा कि “हम तरसते रहे उम्र भर के लिए/ रास्ते में किसी हमसफ़र के लिए”, तो सभागार तालियों से गूंज उठा। डा शंकर प्रसाद कहना था कि, “चल के रुकते हैं कदम राह भी अनजानी सी/ ख़ूब महकी है फ़िज़ां बजती है शहनाई भी”। कवयित्री आराधना प्रसाद ने कहा कि, “दिया इक जलाएँ अगर तुम कहो तो/ अंधेरा मिटाएँ अगर तुम कहो तो”। कवि श्याम बिहारी प्रभाकर, डा मनोज गोवर्द्धनपुरी, ई अशोक कुमार, डा पुष्पा जमुआर, डा प्रतिभा रानी, सागरिका राय, जय प्रकाश पुजारी, डा शालिनी पाण्डेय, पंकज कुमार वसंत, सदानंद प्रसाद, नीरव समदर्शी, डा सुषमा कुमारी, अर्जुन प्रसाद सिंह, अभिलाषा कुमारी, उपासना सिंह, अरविंद अकेला, डा कुंदन लोहानी, वीणा कुमारी आदि कवियों ने भी अपनी रचनाओं का पाठ किया।इस अवसर पर, प्रो सुशील झा, ओम प्रकाश पाण्डेय “प्रकाश”, डा नागेश्वर प्रसाद यादव, राजेश भट्ट, प्रवीर कुमार पंकज, बाँके बिहारी साव, समेत बड़ी संख्या में प्रबुद्धजन उपस्थित थे।मंच का संचालन कवि ब्रह्मानन्द पाण्डेय ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन कृष्ण रंजन सिंह ने किया।