पटना : महान स्वतंत्रता-सेनानी, कवि, संपादक और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक महामना मदन मोहन मालवीय सच्चे अर्थों में ‘भारतीय आत्मा’ थे। यह उपाधि उन्हें राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने दी थी। हिन्दी और भारतीय संस्कृति की शिक्षा के लिए दिया गया उनका अवदान कभी भुलाया नही जा सकता। वे संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेज़ी के विश्रुत विद्वान ही नही अद्भुत वक्ता भी थे। विद्वता, विनम्रता, सेवा, संघर्ष और बलिदान उनके रक्त के प्रत्येक बूँद में था। वे तपस्वी ऋषि थे। उनको स्मरण करना किसी तीर्थ-यात्रा से भी अधिक पावन है। दूसरी ओर अटल जी राष्ट्रीयता को समर्पित, आधुनिक भारत के एक ऐसे महापुरुष थे जिन पर संपूर्ण भारत वर्ष गर्व कर सकता है। वे कविता-सुंदरी के भी प्रियपात्र थे। वे राजनेता न होते तो ‘महाकवि’ होते। यह बड़ा अद्भुत संयोग है कि, एक ही दिवस को धरा पर अवतरित हुए इन दोनों ही विभूतियों को भारत की सरकार ने ‘भारत-रत्न’ के सर्वोच्च अलंकरण से विभूषित किया। यह बातें रविवार को, भारत के इन दोनों ही महान रत्नों की जयंती की पूर्व संध्या पर बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में आयोजित समारोह की अध्यक्षता करते हुए, सम्मेलन के अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही।
डा सुलभ ने कहा कि, मालवीय जी ने लुप्त हो रहे भारतीय-ज्ञान और संस्कृति के उन्नयन के लिए अनेक संस्थाओं की स्थापना की और अनेकों संस्थाओं का पोषण किया। वे चार-चार बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। अखिल भारत वर्षीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के भी वे संस्थापक अध्यक्ष थे। छात्र-जीवन से ही रचनात्मक साहित्य से जुड़ गए थे। ‘मकरंद’ उपनाम से कविताएँ लिखा करते थे। ‘हिंदुस्तान’, ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ जैसे हिंदी और अंग्रेज़ी समाचार-पत्रों का संपादन भी किया। किसी एक व्यक्ति में इतने सारे गुण हो सकते हैं, यह सहसा विश्वास नही होता। वे स्वतंत्रता-संग्राम के महान सेनापति और हिन्दी-आंदोलन के पितामह थे।
कलम के जादूगर और बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के पूर्व अध्यक्ष रामवृक्ष बेनीपुरी को स्मरण करते हुए उन्होंने कहा कि क्रांति और विद्रोह की एक ज्वाला उनके हृदय में सदा धधकती रही। उनके भीतर जल रही वही अग्नि उनकी लेखनी से एक ऐसे साहित्य के रूप में सामने आई, जो स्वतंत्रता-आंदोलन के अमर सिपाहियों को ऊर्जा देती रही। वे महान क्रांतिकारी और अद्भुत प्रतिभा के साहित्यकार थे। विभिन्न जेलों में उन्होंने लगभग ९वर्ष बिताए। किंतु काराओं को भी उन्होंने साहित्य का तप-स्थली बना लिया। जब-जब जेल से निकले, उनके हाथों में अनेकों पांडुलिपियाँ होती थी। ‘पतितों के देश में’, ‘क़ैदी की पत्नी, ज़ंजीरें और दीवारें’, गेहूँ और गुलाब’ जैसी उनकी बहुचर्चित पुस्तकें जेल में ही लिखी गईं।
समारोह के मुख्यअतिथि और दूरदर्शन बिहार के कार्यक्रम-प्रमुख डा राज कुमार नाहर ने कहा कि बिहार के लिए यह गौरव का विषय है कि यहाँ का साहित्य सम्मेलन देश में सबसे सक्रिए साहित्यिक संस्था के रूप में आदर पा रहा है। विशिष्ट अतिथि और ‘राम जानकी संस्थान सकारात्मक भारत’ के संस्थापक उदय कुमार मन्ना ने कहा कि बुजुर्गों का सम्मान और सकारात्मक-विचारों का प्रचार-प्रसार पूरे भारतवर्ष में चलाने का एक अभियान चलाया जा रहा है। उन्होंने संस्था द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘अमृत-काल का सकारात्मक भारत (भाग -1)’ की प्रतियाँ सम्मेलन अध्यक्ष एवं अन्य अतिथियों को भेंट की।सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद, अंजनी कुमार बेनीपुरी, डा प्रकाश झुनझुनवाला, अवध बिहारी सिंह, ओम् प्रकाश झुनझुनवाला, श्रीकांत व्यास, डा मनोज कुमार मिश्र तथा चंदा मिश्र ने भी अपने विचार व्यक्त किए।
इस अवसर पर आयोजित लघुकथा-गोष्ठी में, डा शंकर प्रसाद ने ‘संबंध’, डा पुष्पा जमुआर ने ‘मृगतृष्णा’, डा पूनम आनंद ने ‘नया साल’, मीरा श्रीवास्तव ने ‘विदाई’, रामनाथ राजेश ने ‘भोजन’, अनुभा गुप्ता ने ‘सुकून’, जय प्रकाश पुजारी ने ‘सम्मान’, अरविन्द अकेला ने ‘कुत्तों का बॉस’,अर्जुन प्रसाद सिंह ने ‘धन्यवाद’, सिद्धेश्वर ने ‘अंतिम प्रश्न’, नरेंद्र कुमार ने ‘साफ़ सुथरा’ तथा राजप्रिया रानी ने ‘विवाह’ शीर्षक से लघुकथा का पाठ किया। मंच का संचालन डा मुकेश कुमार ओझा ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन कृष्णरंजन सिंह ने किया। वरिष्ठ पत्रकार प्रेम कुमार, ई विजय कुमार, युगेश कुशवाहा, नन्दन कुमार मीत, आनंद आशीष, विवेक बिहारी मिश्र, अल्पना कुमारी, अनीश कुमार, अजय प्रसाद, दिलीप वर्मा, कुमारी मेनका, डौली कुमारी आदि प्रबुद्धजन उपस्थित थे।